बचपन में इन मासूम आँखों में
कई ख़्वाब संजोये थे |
बारिश के बाद के साफ़ आसमान की तरह
मंज़िल एक दम साफ़ दिखती थी |
इरादे बुलंदियों पर थे
इतने ऊँचे की ज़मीन दिखती ही न थी |
जोश था कुछ कर दिखने का
दुनिया पर फ़तेह पाने का |
दो कदम आगे बढे
राह की मुश्किलों का अहसास हुआ |
ज़मीन पर चलना आसान न था
और उड़ना मुमकिन न था |
धीरे धीरे चलना सीखा
गिरे तो गिरकर उठना सीखा |
पर मंज़िल से नज़र हट गयी शायद
कई इमारतों में हमारी इमारत भी खो गयी शायद |
अब तो इन्ही बाज़ारों में भटक रहे हैं
अपनी मंज़िल की तलाश में |
कई बार भीड़ के साथ ही हो लेते हैं
सब खोये हुए साथी मुसाफिर ही लगते हैं
किसी मंज़िल की तलाश में भटके लगते हैं |
शाम की डगमगाती रौशनी में
कदम भी लड़खड़ाने से लगे हैं |
आँखों के आगे धुंधले धब्बे भी
चिलमिलाने से लगे हैं |
मंसूबों में भी अब वो बचपन वाली बात कहाँ
अंधियारे में जो चमके वो जुगनू का भी साथ कहाँ
बस इसी आस में बढे जाते हैं
कि एक दिन तो हमें भी मुकम्मिल जहाँ मिलेगा |
a very good write :)
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