एक दोराहे पर खड़ा असमंजस में था मैं
एक ओर पगडण्डी थी
संकरी, ऊबड़ खाबड़
एक मानुस के क़दमों सी चौड़ी
शायद काँटे भी बिछे थे कुछ
पर मेरे घर तक जाती थी वो |
एक ओर थी चिकनी सड़क
सारी तेज गाड़ियों से सजी
कई लोगों के भार वहन की क्षमता लिये
पर अंत उसका दीखता नहीं था कहीं |
सभी सड़क पर चले जाते थे
शायद घर किनारे पर ही थे उनके
या फिर, किनारे की सराय में
रात बसर होती थी उनकी |
मैं बस खड़ा सोच रहा था
राह में गिरने का डर था शायद
या, गिरकर होने वाले उपहास का
या फिर, अकेले काँटों पर चलने का
पर बार बार घूम फिरकर वहीँ पहुँच जाता था |
कोई गाड़ी नहीं जाती वहाँ तक
न ही कोई साथ जायेगा
ये कुछ अंतिम कदम थे
जो अकेले ही तय करने थे मुझे
आखिर कब तक यूँ
सड़कों और सराय में रात बसर होगी?
bahut sundar...ye anishchitta ki sthiti har vyakti ke saath hai...har aadmi bas sadak wali aasan rah pe baki logo ko dekh ke daude ja raha hai bina manjil ki fikr kiye...good one
ReplyDeleteGood one. I liked it!
ReplyDeleteacha tha. thoda sa kam samajh aaya but I think fir bhi kavi jahan pahunchana chah raha tha, main wahi pahuncha.
ReplyDeleteNice one Man! Keep me posted with new creations :)
ReplyDeleteअबे तुम्हे नहीं लगता कि अब दोराहे पे खड़े काफी time हो गया ?
ReplyDeleteReminded me of robert frost's poem..."The road less travelled"
ReplyDeleteenjoyed reading