Wednesday, December 7, 2011

एक बार और जोर लगाते हैं

हर दिन एक नया संघर्ष है
रोज़ दृढ़ता का कवच पहने मैं घर से निकलता हूँ
और हर रोज़ घायल छलनी छलनी ही लौटता हूँ
कितनी बार सोचा 'अब बहुत हुआ'
'अब और देर न ठहर पाएंगे इस विपरीत प्रवाह में'
पर बार बार कुछ सोच कर रुक जाते हैं
लगता है चलो एक बार और जोर लगाते हैं
आगे न बढे तो क्या हुआ
शायद जगह पर खड़े खड़े ही पार लग जायेंगे 
कुछ नहीं तो कम से कम, हार कर भी 
दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब तो देख पाएंगे
पहले भी कई बार संघर्ष छोड़ 
सरल मार्ग को चुना है
पर हर बार पश्चात्ताप ही किया है
इस बार यह जिद ठानी है कि
या तो प्रवाह को चीर कर 
लक्ष्य पर ही पहुँच जायेंगे 
या फिर धारा के साथ बहकर 
सागर से ही मिल जायेंगे
पर किनारे पर बैठकर
औरों का तमाशा देखना 
अब हमसे न होगा |

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