Wednesday, February 10, 2010

कश्ती की कश्मकश

दास्ताँ ज़िन्दगी की सुनाएँ क्या हम 
कश्मकश हर घड़ी की भुलाएँ क्या हम?
कश्तियों की किनारे की ज़द्दोज़हद 
क्या कलम से बयाँ कर भी पाएंगे हम?

दूर जाना के फिर पास आना तेरा 
तेज़ लहरों में सर को झुकाना मेरा
राह मिलने की मुश्किल ना होती अगर
क्या जहाँ होता इतना दीवाना तेरा?

साथ कोई ना था बस तेरी आस थी
बढ के छूने की तुझको ही इक प्यास थी 
बीच मझधार हो या भँवर पार हो 
ज़िन्दगी की मेरी बस यही राह थी |

मिलने की चाह में हर किनारे पे ही 
लहरों को हमने मिटते हुए देखा है
लाख कह ले, रहो दूर मुझसे, शमा
परवानों को बस जलते ही देखा है |

2 comments:

  1. that's really nice bro...Interesting is there no such complexity or difficult word used in this.I loved it.May I know the source of these feelings?

    ReplyDelete
  2. thank u, I dont have a vast vacbulary now...bas kaam chalate hain...just trying to write down my experiences in a fancy way :)

    ReplyDelete